त्रिवेणी और अर्थ : सातवीं किश्त

पिछली पोस्ट में मैंने छ्ठी त्रिवेणी का अर्थ समझने-समझाने की कोशिश की। किसी भी तरह का सवाल पूछना हो, तो नीचे कमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं। मैं अपने फ़ेसबुक पेज पर लाइव भी आता रहूँगा ताकि आप सीधे-सीधे सवाल पूछ सकते हैं। फ़िलहाल, आज हम सातवीं त्रिवेणी का अर्थ समझेंगे। पेश है सातवीं किश्त-
त्रिवेणी-7
क़र्ज़ लेकर उमर के लम्हों से बो दिए मैंने बीज हसरत के
पास थी कुछ ज़मीं ख़यालों की
भाव-
आज के समय में हम में से ज़ियादातर लोग रुटीन-लाइफ़ जीते हैं। अगर हम सुबह से शाम तक का हिसाब करने बैठें, तो सप्ताह-महीना-साल में बहुत फ़र्क़ नहीं दिखाई पड़ता। यहाँ तक कि अलग-अलग उम्र में रुटीन में थोड़ा सा बदलाव आता है, पर कम-ओ-बेश हम एक ही तरह की चीज़ें करते हुए सारी उम्र गुज़ार देते हैं। वर्तमान में जीते हुए जो इंसान अपने पिछले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए भविष्य में होने वाले बदलाव की आहट को पहचान लेता है, उस इंसान की सोच अस्ल में उपजाऊ होती है। ऐसा इंसान ही, समाज और इंसानियत के बारे में बेहतर सोच सकता है। ऐसे इंसान ही आँखें ही भविष्य के गर्भ में छुपी हुई समय की संतानों के बारे में कह सकती है, कि वो समाज के लिए कितना उपयोगी होंगी।
अर्थ-
ऊपर दी गई त्रिवेणी में कहा गया है कि अपने अनुभव का इस्तेमाल करते हुए, हमें अपनी ज़िंदगी में कोई भी काम करना चाहिए। लेकिन किसी भी एक अनुभव का इस्तेमाल हर एक संदर्भ में नहीं किया जा सकता। बहुत दफ़ा ऐसा भी हो सकता है बिल्कुल नए सिरे से सोचना होता है, जब पिछले अनुभव भी काम नहीं आते। इसीलिए लगातार सोचते रहना बहुत ज़रूरी है। अगर हम अपने आसपास नज़र घुमाएँ तो पाएँगे कि कुछ लोग हैं, जो समाज से अलग सोच रखते हैं। समाज ने जो नियम बनाए हैं, उन्हें आज की ज़रूरत के हिसाब से बदलना चाहते हैं। ऐसे लोगों के मन में ही समाज को नई दिशा देने के ख़याल पैदा होते हैं। ये बात भी समझनी चाहिए कि किसी के मन सिर्फ़ ख़याल पैदा होना ही काफ़ी नहीं होता। उन ख़यालों को सोच की ज़मीन में बदलना और उस ज़मीन में इंसानियत को और बेहतर होते देखने की हसरत के बीज बोना ज़रूरी है। हमारी कोशिश रहे कि ख़यालों की ज़मीन कभी बंजर न हो। हमारे भीतर की सम्वेदना कभी न मरने पाए।
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